शुक्रवार, 6 मई 2011

एक शीर्षकहीन कविता

आखिर क्या करें
कि अँधेरे -उजाले में होती हत्याएं
और हों ,
कुंठाओं और आत्मवर्जनाओं
से बना आकाश
किसी बोझ की तरह
हमारे कन्धों पर झूले नहीं ।

पानी से निकाल
सूखे में फ़ेंक दें
सारी मछलियाँ
और समुद्र के वक्ष पर बांधें
रेत का एक बाँध !

या शीशे की तरह तोड़ दें
सूर्यमुखी आस्था
और उसके टुकड़ों से
लहूलुहान कर लें
अपनी अंगुलियाँ !

बादलों के बीच भटका दें
अस्तित्व का दावेदार
कोई वायुयान
और फिर हँसे
हँसे इतना कि थर्रा उठें
अहम् के प्रतीक
दुर्ग की दीवारें !

या फिर अन्दर
कहीं गहरे धधकते
लावे से घबराकर
द्वार पर टांग दें मुर्दा छिपकिली
और फिर करें घोषणाएं
कि हमने क्या नहीं किया ?
कि हममे और हिटलर में
क्या फर्क है ?
कि हमने पटक दिए हैं
तुम्हारी हथेली पर
नन्हे और मुर्दा
इराक - अफगानिस्तान
और तुम
बदले में दो हमें ज्वालायें
जिनमे झोंक दें
सारे श्वेत कबूतर।

लेकिन
ये दिन ,रात ,
नक़्शे ,सड़के और गलियाँ
जिन पर फैल गयी है
गंधाती बारूद,
जहां हर दिन
रक्तस्नात ही आता है
और रात फैलाती है
हत्याओं की खबर,
वहां भी जन्मेगा कोई ईसा।

तब तुम वहां नहीं होगे ,
फिर भी वो माँगेगा
तुम्हारे गुनाहों का हिसाब
भले ही वह कहे
कहता रहे
" कि घृणा पापी से नहीं
पाप से करो ।"