नहीं आया वसंत |
पड़ती रही
बढ़ती- घटती रही
सर्दी मुसलसल,
रूठे बच्चे सा
कहीं बैठा रहा
गुलाबी जाड़ा |
नहीं बढ़ा अन्तःस्राव
नहीँ फूटी बाहर के पेड़ों
या मेरे बौनसाई पौधों में
कोई नई कोपल,
नहीं आयीं कलियाँ
मौसम के फूलों में,
जाड़े के फूल
मुस्कुराते रहे बदस्तूर |
नहीं बदली बयार,
वैसे ही
छूटती रही धूजनी,
नहीं फूली सरसों
जैसा पढ़ा था
किताबों में बचपन से,
क्या झूठा ही रहा है
वसंत और सरसों का सम्बन्ध ?
बीत चली फरवरी
मैं करता रहा इंतज़ार
कि शायद आजायें ' चेपा' ही,
कर दें दूभर
पैदल या दुपहिया पर चलना,
कम-अज़-कम
इससे ही
लगे तो खबर
कि कहीं तो तैय्यार है
सरसों की भरपूर फसल |
मंदिरों में
फागुन में भी होते रहे
पौष-बड़ा आयोजन,
नहीं आई कहीं से
वसंतोत्सव की खबर,
मुंह छिपाकर
सोया रहा कामदेव,
नहीं हुआ
नहीं होता आजकल
मदनोत्सव,
नहीं फैला प्यार
तनिक भी हवाओं में,
पूछा भी मैंने ठंडी हवाओं से
प्यार के बारे में
और उत्तर में पसर गयी
खामोश सी उदासी |
नहीं आया वसंत
बीत गयी
वसंत-पंचमी |