बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

नहीं आया वसंत

बीत गयी वसंत पंचमी,
नहीं आया वसंत |

पड़ती रही
बढ़ती- घटती रही
सर्दी मुसलसल,
रूठे बच्चे सा
कहीं बैठा रहा
गुलाबी जाड़ा |

नहीं बढ़ा अन्तःस्राव
नहीँ फूटी बाहर के पेड़ों
या मेरे बौनसाई पौधों में
कोई नई कोपल,
नहीं आयीं कलियाँ
मौसम के फूलों में,
जाड़े के फूल
मुस्कुराते रहे बदस्तूर |

नहीं बदली बयार,
वैसे ही
छूटती रही धूजनी,
नहीं फूली सरसों
जैसा पढ़ा था
किताबों में बचपन से,
क्या झूठा ही रहा है
वसंत और सरसों का सम्बन्ध ?

बीत चली फरवरी
मैं करता रहा इंतज़ार
कि शायद आजायें ' चेपा' ही,
कर दें दूभर
पैदल या दुपहिया पर चलना,
कम-अज़-कम
इससे ही
लगे तो खबर
कि कहीं तो तैय्यार है
सरसों की भरपूर फसल |

मंदिरों में
फागुन में भी होते रहे
पौष-बड़ा आयोजन,
नहीं आई कहीं से
वसंतोत्सव की खबर,
मुंह छिपाकर
सोया रहा कामदेव,
नहीं हुआ
नहीं होता आजकल
मदनोत्सव,
नहीं फैला प्यार
तनिक भी हवाओं में,
पूछा भी मैंने ठंडी हवाओं से
प्यार के बारे में
और उत्तर में पसर गयी
खामोश सी उदासी |

नहीं आया वसंत
बीत गयी
वसंत-पंचमी |

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

आदतन

औरतें
जब होतीं हैं दफ्तर में
तो काम पर ही नहीं होतीं,
कभी भी आ सकता है
उनका फोन
खाना खा लेने,
समय पर दवा लेने,
या लौटते समय
फेहरिस्त का सामान लाने की
हिदायत के साथ |

घर में
सुबह का खाना निबटने के साथ
शुरू हो जाती है उनकी
रात के खाने की चिंता,
रसोई में
वे खाना ही नहीं पकातीं
सरे घर को
भर देतीं हैं
मसालों की गंध से,
लेकिन शाम को
गर खटकते हैं
मर्दों के गिलास
तो टोकती ज़रूर हैं,
यह जानते हुए भी
कि इस मसले पर
सालों से
अनसुनी करते रहे हैं वह |

औरतें
जब होती हैं बच्चों के बीच
तो ज़रूरी नहीं
कि करा रहीं हों होम वर्क
या तैयार कर रहीं हों उन्हें
किसी फंक्शन
या स्कूल के लिए,
वे यह कर रहीं हों तो भी
मुसलसल चलती रहती हैं
उनकी हिदायतें
यह जानते हुए भी
कि आखिरकार मानेंगे नहीं बच्चे |

औरतें
जब होती हैं
सहेलियों के बीच
तो चुहलबाज़ी ही नहीं करतीं,
उनकी बातों में होता है
अपने सहित
सारे जाने-अनजानों का दुःख-दर्द
( लोग इसे गॉसिप कहते हैं )
यह जानते हुए भी
कि कर कुछ नहीं सकतीं हैं वे |

औरतें जब होती हैं
अपने पति नुमा मर्द के साथ
तो बस वहीँ नहीं होतीं,
वे सुनाती हैं
अपने दिन भर की बातें
यह जानते हुए भी
कि पति कि हूँ या हाँ
नहीं है
उसके सुनने का सबूत |

दरअसल
आदमी की ज़रूरत
अक्सर नहीं होती
औरत की दरकार,
आदमी
जब तलाशता है
अपनी पत्नी या प्रेमिका की
कहीं खो गई देह-गंध,
औरत उस समय तक
बंट चुकी होती है
अनेक अबूझ रिश्तों में
इतने चुपचाप
कि आदमी को इसकी
हवा भी नहीं लग पाती |

आदमी के लिए
आश्चर्य होती है औरत
और ताउम्र
वही बनी रहती है
आदतन |
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