मंगलवार, 17 जनवरी 2012

चुनाव



देख रहा हूँ उन्हें
बचपन से |

तब नहीं जानता था
कि वे हैं कौन
हाँ, उनके रिक्शे -तांगे के पीछे
पर्चे लूटने भागना
याद है मुझे |

पिता कहते थे

ये चुनाव के दिन हैं

और मक्कार हैं ये सब
तब मैं नहीं जानता था

मक्कारी का अर्थ |

जब भी वे आते थे
करते थे बातें,
लाते थे ढेर सारे सपने
और मैं सोचता था

कि कितने भले हैं ये लोग

जो मांगते हैं

कोई वोट नाम की चीज़

और देते हैं सुख और आराम के ढेर से वादे|

लेकिन फिर बीत जाता था वह उत्सव

और वे सारे सपनों और नुस्खों के साथ

गायब हो जाते थे

ऐसे ही समझा मैंने
मक्कारी का अर्थ |


समय बदला

और जाना
हर पांच साल में उनका आना

कभी कभी

बीच में भी आते थे वे

लेकिन अब रिक्शे - तांगे में नहीं
बड़े वाहनों में |

बड़े हो गए थे उनके वादे
कहते - सबको देंगे रोटी
और रोटी थाली में आये या न आये
सपनों में ज़रूर आती थी,
सपनों में चमकती थी नौकरी,
मिलता था पीने को साफ़ पानी,
बढ़ने लगता था
खेतों और कारखानों में उत्पादन

और हकीक़त में मजदूर और कामगर
करते रहते थे आत्महत्या |

वे कहते थे

हम देंगे पक्के मकान

और मेरी झोपड़ी भी

गायब हो जाती थी |

वे करते वायदे

गरीबी हटाने के

और गरीब उठ जाते थे

दुनिया से |

वे बात करते सुशासन की

और लड़ा देते लोगों को बेबात |

लगातार सिकुड़ रही थी
हमारी ज़मीन,
बढ़ रहे थे उनके भवन,
खाली हो रहीं थीं

हमारी जेबें
और उनका धन
इस देश से उस देश तक पसरा था |

अब वे फिर आ रहे हैं वोट माँगने
बाँट रहे हैं लुकमानी नुस्खे
दुख -दर्द हरण के

और फिर वही कह रहे हैं लोग
"
मक्कार हैं ये सब "|

लेकिन हमेशा की तरह

इस बार भी दे आयेंगे किसी न किसी को वोट

और फिर हमेशा की तरह

कहीं बिला जायेंगे

सब के सब |

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

उमराव जान

कैसी थी,
कैसी दीखती थी,
कैसी रही होगी वह
जिसके बारे में
चर्चे होते हैं आज
सदियों के बाद भी |

कहते हैं
वह सुन्दर थी,
कितनी सुंदर थी
रीतिकाल की नायिका सी
या तिलोत्तमा
कालिदास की ?
कैसा रहा होगा
उसका रंग,
दूध सा गोरा
या कृष्ण सा श्याम ?

क्या इस दुनिया को
चकित हरिणी सी बड़ी-बड़ी आँखों से
निहारती होगी वह,
क्या अनारदानों सी
समतल रही होगी
उसकी दन्तावली
और बिम्बाफल से लाल होंठ,
क्या किसी भंवर सी गहरी थी
उसकी नाभि,
क्या उरोजों का भार
किंचित झुकाता था
उसकी देहयष्टि,
क्या श्रोणी-भार ने
अलसगमना बनाया था उसे ......
पता नहीं |

लेकिन यह सवाल
सालता है लगातार
कि अपने घर से दूर
कहीं और रोप दी गई
उस लड़की को
कैसा लगता था
जिसने नहीं जाना था बचपन,
भाई से
झगड़ नहीं पाई थी,
ज़िद नहीं कर पाई थी
अम्मी या अब्बू से,
बस बचपन से जवानी तक
सीखती रही गुर
नाच- गाना
तौर-तरीके
एक मशहूर रक्कासा
या तवायफ़ बन जाने के |

कहते हैं
एक नवाब और एक डाकू से
प्रेम किया था उसने,
तो इतना तो तय है
कि एक दिल तो धडकता था
सीने में उसके,
शायद इसी दिल ने
शायरा बनाया था उसे
लेकिन वे प्रेमी
प्रेम किसे करते थे ....
उमराव जान को
या उसकी देह को ?

यह भी नहीं पता मुझे
कब तक ज़िन्दा रही वह,
पर यह मालूम है
किसी एक दिन
लुटी -पिटी सी
वह पहुंची थी अपने घर
और वहाँ से
शिला बन कर लौट गई थी वापस
लुटे-पिटे उसी कोठे पर |

सुनते हैं
फ़ैजाबाद था
उसका अपना घर,
वही जगह
जिसकी बगल में
विराजे हैं रामलला,
कहते हैं
शिला बन गई
अहिल्या के तारक थे वह
लेकिन यह
महज़ एक कथा है,
वास्तव में किसका उद्धार करते हैं वे
कौन जानता है
लेकिन यह जानते हैं सब
कि उसको नहीं तारा उन्होंने
जिसका नाम था
उमराव जान |