गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

विश्वविद्यालय

एक पतंग
बिना डोर के
हवा में है ,
इस खामखयाली में
कि डोर उसके हाथ है
सब
शून्य में चला रहें हैं हाथ ,
पतंग मुक्त है
हाथ थक गए हैं ।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

पिता के नाम

लोग कहते हैं
बूढ़े हो गए हैं पिता,
चलते हैं
लडखडाते हैं
गिर भी जाते हैं कभी।

डॉक्टरों की राय हैं,
"कचरा सा भर गया है कुछ
दिमाग की नसों में,
संतुलन नहीं रख पाते वह"
लेकिन पिता तो
सदा से ऐसे थे।

मुझे नहीं पता
माँ ने कहा था,
पहली बार चलते हुए
जब गिरा था मैं
तब भी
लडखडाये थे पिता।

और यह तो याद है मुझे
जितनी देर से
घर लौटता था मैं
उतनी देर
लडखडाते ही रहते थे पिता।

इम्तेहान में
फेल हुआ मैं
तब भी लडखडाये थे पिता।

मेरी शादी, नौकरी
बच्चो के जन्म पर,
अपनी माँ
मेरी माँ की मौत पर,
हम सब की खुशियों
असफलताओं पर,
मेरी बेटी की शादी पर,
उसके माँ बनने पर,
पोते के विदेश जाने पर
पता नहीं क्यों
हर बार
जैसे हैं आज
ठीक ऐसे ही असहज
लडखडाये से दीखे थे पिता।

क्या हुआ,
नया क्या हुआ,
वह पिता हैं
हडबडाते हैं ,
लडखडाते हैं ,
लेकिन पहले की तरह
हर बार
संभलना - संभालना
उनसे हो नहीं पाता अब।

जब से पिता हो गया हूँ मैं
मेरा लडखडाना भी
पिता में ही शामिल हो गया है।



सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

याद - 3

एक आवाज़,
रात के सन्नाटे का खून करती
एक आवाज़
बहुत दूर से आती है,
सपनो के मानसर में तैरती
मेरी हंसपंखी यादों को
निगल जाती है ।

प्यार की परछाइयां
मंडराती हैं,
खिड़की के परदे
थरथरा कर
थम जाते हैं,
अस्तित्व के दावेदार
कई विचार
छटपटा कर
दम तोड़ देते हैं,
मैं सोचता हूँ
आखिर यह मनहूस
मर क्यों नहीं जाती ।



याद -2

मन में
मचलती यह साध
मुखर होती याद की
गर्दन दबा दूं ।

आज मन के कैनवस पर
चित्र तेरा
बहुत गहरा हो उठा है ,
एक कूंची उठे जबरन
निठुरता से क्रॉस कर जाए
तुम्हारे रूप को ।

तुम्हारे नाम के आगे
( जो धमनियों में
एक सिहरन पूर देता )
कलम से
ऐसा विशेषण एक झर जाये
जिससे तुम्हे चिढ़ हो ।

एक ऐसा प्रबल झोंका जन्म ले
जो तुमसे जुडी
हर वस्तु को
धुंए सा तोड़ डाले
उडादे दूर ।

लेकिन न जाने क्यों
होता नहीं कुछ ,
लाचारी इतनी बढ़ी है
की सहम कर
स्वयं में ही
सिमटने लग गयी है ,
और तुम्हारी याद
गहरी ,
और गहरी ....... और गहरी ।

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

याद-1

अनजाने ही
लाल हो जाता है
कोई सन्दर्भ ,
कौंध उठती है तुम्हारी याद।

किसी कागज़ का
सफ़ेद क्षितिज
भरता रहता है
आड़ी - तिरछी रेखाओं से
जो शायद किसी बिंदु पर
आपस में मिलती हैं।

तुम्हारा नाम लिख
बगल में
एक और नाम
करता हूँ अंकित
जिससे तुम्हे चिद थी ,
उस पर टेकता हूँ होंठ
कोई विरोध नहीं होता

दुहराता हूँ वह सभी
जो सुनना भी
नापसंद था तुम्हे,
फिर - फिर सुनता हूँ
जतन से संभाल कर रखा
पुराना रिकॉर्ड
जो तुमको भाता था।

शून्य में निहारता हूँ
देर तक ,
दिन में भी
ढूँढता हूँ अरुंधती
नीले आकाश में।

बाहर निकल
हवा को लिपटने देता हूँ ,
चिर परिचित
सिहरन की लहरों में
महसूसता हूँ तुम्हे
बार - बार।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

अमृत्यु

यह सच है
कि भारी आवाजों के बीच
टूट गयी थी रात की खामोशी
पर क्यों
आखिर क्यों मान लिया तुमने
उन आवाजों से अपना सम्बन्ध।

क्या तुम्हारे पास नहीं थी
कोई उफनती नदी
या वह सूख गयी इतनी जल्दी
कि कमजोरी - घबराहट के नीचे दबे
तुम हर आहट पर सहमते रहे,
और मैं
किसी अज्ञात नाटक में फँस कर
संवादों के द्वारा
तुम्हे समझाता रहा ।

कितना विचित्र था वह क्षण
मैं अपने सामने खडा था
लोग हंस रहे थे
नहीं पता था उन्हें
दोस्ती की भाषा दूसरी होती है
दुश्मनी की दूसरी ।
जाओ , अब तुम जाओ
और चुन -चुन कर
ह्त्या कर दो उन सपनों की
जो तुम्हारी खुली आँखों में बंद हैं ।

नहीं, अब अभिनय नहीं करूंगा मैं
इससे तो अच्छा है
पेट में तपती आग से तंग आकर
खा लेना अपना ही मांस
और भुला देना वह काला सा शून्य
जो कन्धों पर झुका है ।

लेकिन तुम नहीं करोगे यह सब,
( सहोगे भी नहीं )
सिर्फ दूसरों की ज़मीन पर खड़े होकर भाषण दोगे
या विस्थितियों के समुद्र में
चुपचाप सौंप दोगे अपनी चेतना
लहरों को ।

मैंने देखा है
मुहँ से झाग और नारे
साथ -साथ उगलता हुआ जुलूस
जब भी गुज़रा है
तुम एक चालाक नेता की तरह
उसके पीछे चले हो निःशब्द
और जब सड़क हावी होने लगी है
तुम लोमड़ी की तरह चक्कर काट कर
गायब हो गए हो ।

हर बार
घटनाओं के जाल में फंसते समय
बहस का रुख
तुमने मौसम या बाज़ार भाव की ओर
मोड़ दिया है,
जाओ अब तुम जाओ
और किसी स्याह किले की दीवारों पर
पटकते रहो अपना सर ।

मुझे नहीं पता था
इतना कातर है तुम्हारा आसमान
कि हताश होने पर
तुमसे भी नीचा हो जाता है ,
तुम किसी कंधे पर
टिका देते हो अपना माथा
और वह किसी अंधी गुफा की
दीवार टटोलता रहता है |

नहीं , मैं नहीं करूंगा यह सब
सहूंगा भी नहीं,
जिनका जीवन संगीत बन चुका हो
वे सहें ,
मुझे तो गिनने हैं
उस मगरमच्छ के दांत
जो जीवन की लहरों पर
मौत बन कर नाचता रहता है ।

लोग हसेंगे ..... हँसे ,
सभाएं करें ,
मन चाही धुन पर
दुहराते रहें राष्ट्रगीत ,
उन्हें नहीं पता
संज्ञाओं में जीना
मैंने छोड़ दिया है ,
दिवास्वप्नों से
मुझे चिढ है ।

पर तुम जाओ ...... जाओ
और किसी ऊँचे पहाड़ से
लुढ़का दो स्वयं को
गेंद की तरह ।

मुझे पता है
अधिक से अधिक
किसी बेहूदा इश्तेहार की शक्ल में
तुम दीवारों पर चिपक जाओगे
मरोगे नहीं,
पर तुम जाओ ...... जाओ
और कम से कम
अपने खून का रंग जान लो ।