अनजाने ही
लाल हो जाता है
कोई सन्दर्भ ,
कौंध उठती है तुम्हारी याद।
किसी कागज़ का
सफ़ेद क्षितिज
भरता रहता है
आड़ी - तिरछी रेखाओं से
जो शायद किसी बिंदु पर
आपस में मिलती हैं।
तुम्हारा नाम लिख
बगल में
एक और नाम
करता हूँ अंकित
जिससे तुम्हे चिद थी ,
उस पर टेकता हूँ होंठ
कोई विरोध नहीं होता।
दुहराता हूँ वह सभी
जो सुनना भी
नापसंद था तुम्हे,
फिर - फिर सुनता हूँ
जतन से संभाल कर रखा
पुराना रिकॉर्ड
जो तुमको भाता था।
शून्य में निहारता हूँ
देर तक ,
दिन में भी
ढूँढता हूँ अरुंधती
नीले आकाश में।
बाहर निकल
हवा को लिपटने देता हूँ ,
चिर परिचित
सिहरन की लहरों में
महसूसता हूँ तुम्हे
बार - बार।
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