हे लवण ,
नहीं पता मुझे
मेरे किस पूर्वज को
किस जल या पत्थर में
अचानक मिले तुम ,
किस की जीभ से
देह में फैलाया तुमने
एक नया स्वाद।
हे लवण ,
सभ्यता के उस आदि दिन से
सृष्टि के हर कोष में
बस गए तुम,
हर किसी घर में
पूजे गए तुम,
खून का हर कतरा
तुम्हारी विजय-गाथा है,
गांधी का नमक यज्ञ
तुम्हारी ही पताका है।
हे लवण,
तुम्हारे बिन भाता नहीं
कोई भी रूप,
तुम बिन चमकती नहीं
यौवन की धूप ,
तुम्हारा समभाव ही
रोग का अभाव है,
तुम्हारे बढ़ने से बदलता
धरा का स्वभाव है,
तुम ने ही दिया
नीति को यह अर्थ --
" हलाल हो तो ठीक है
हराम हो तो व्यर्थ "।
हे लवण ,
श्रम की मर्यादा का
मोल हो तुम,
पसीने की बूंदों का
बोल हो तुम,
जीवन चटकीला है
जब तक तुम प्रजागर हो,
नूरे इलाही तक
लवण तुम उजागर हो ।
सोमवार, 12 सितंबर 2011
एक और अग्नि सूक्त
हे अग्नि
तुम आरम्भ हो,
तुम्हारे ही ताप से
सिरजा यह विश्व,
तुमने की श्रृष्टि रचना
बन कर कामाग्नि।
भूख बन आंत में
कुलबुलाते हो तुम ,
प्यास बन कंठ को
चिटकाते हो तुम ,
रक्त की ऊष्मा में
बहते हो तुम ,
तेज बन ज्ञान में
चमकते हो तुम।
तुम ही हो कारण
ईर्ष्या और द्वेष का,
तुम ही हो क्रोध
तुम ही हो रूद्र
तुम ही उत्साह हो
तुम ही हो वृष्टि
तुम से ही होती है
शस्य-धान्य सृष्टि,
ओषधि में निहित
तुम्हारा सामर्थ्य
दग्ध कर देता है
व्याधि के विषाणु ।
हे अग्नि
तुम अंत हो,
तुम समेटने लगते हो
जब अपनी शक्ति ,
सन्नद्ध हो जाती है मृत्यु ,
तुम ही भस्म करते हो
स्वयं रचा शरीर ,
तुम से मिल जाती है
तुम्हारी ही
अग्नि-पूत आत्मा .
तुम आरम्भ हो,
तुम्हारे ही ताप से
सिरजा यह विश्व,
तुमने की श्रृष्टि रचना
बन कर कामाग्नि।
भूख बन आंत में
कुलबुलाते हो तुम ,
प्यास बन कंठ को
चिटकाते हो तुम ,
रक्त की ऊष्मा में
बहते हो तुम ,
तेज बन ज्ञान में
चमकते हो तुम।
तुम ही हो कारण
ईर्ष्या और द्वेष का,
तुम ही हो क्रोध
तुम ही हो रूद्र
तुम ही उत्साह हो
तुम ही हो वृष्टि
तुम से ही होती है
शस्य-धान्य सृष्टि,
ओषधि में निहित
तुम्हारा सामर्थ्य
दग्ध कर देता है
व्याधि के विषाणु ।
हे अग्नि
तुम अंत हो,
तुम समेटने लगते हो
जब अपनी शक्ति ,
सन्नद्ध हो जाती है मृत्यु ,
तुम ही भस्म करते हो
स्वयं रचा शरीर ,
तुम से मिल जाती है
तुम्हारी ही
अग्नि-पूत आत्मा .
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
समय की साज़िश के बाद
कुछ भी संज्ञा हो सकती है
मेरे और उस नगर के संबंधों की
जिसकी दीवारें
आँखों में घुले सपनों से
आ- आकर टकराती हैं,
अपने आप को पहचानने से
इनकार कर देता हूँ मैं.
शहर से बेतरह
नफरत हो जाती है |
इस सब से अलग
मेरा परिवेश
हाथों में सूखे कनेर का गुच्छा लिए
ढहते दुर्ग की प्राचीर पर
धुंए के छल्ले बनाता रहता है |
अन्दर कहीं गहरे दबा
विद्रोही चेतना का कोई अंश
और गहरे पैठ कर
सिर्फ चर्चाएँ करता है,
किसी अग्निपक्षी के पंख
अपनी ही आग से
झुलसते रहते हैं |
रक्त भीगे हाथों से
घोंघे और सीपियाँ बटोरता
एक व्यक्ति,
मन भर कर
अपने आचरण का रस पी लेने के बाद,
रंग-बिरंगे गुब्बारे फोड़ता हुआ
किसी गहरे गर्त में
कूद पड़ता है |
घिर आता है चारों ओर
बारूद के महीन कणों सा
गहरा कुहासा
और मैं
शब्दों को अर्थ
और अर्थों को शब्द देने की प्रक्रिया में
भूल जाता हूँ
अपना व्याकरण |
सारे वर्तमान को
कल्पित यज्ञ में होम कर
रक्तबीज आशा की राख में
नेवलों की तरह
लोटने लगते हैं लोग
" किसी का भी बदन
सुनहरा नहीं होता | "
क्रमशः
थरथराता है आकाश
बढ़ता है अन्धकार,
रौशनी...... रौशनी
चीखता है
हताश चेहरों का हुजूम,
हज़ार टुकड़ों में बंट गया सूर्य
सिर्फ पश्चिमी देशों पर उगता है |
व्याप गए अन्धकार का
लाभ उठाता है
मेरा व्यभिचारी आदिमानव
फिर
पाप न करने की
कसम खाता हुआ
भीड़ में खो जाता है |
मजबूर पिताओं का दल
टोकरियाँ भर-भर कर
ढोता रहता है
अपने बेटों की अस्थियाँ,
जीवन और मृत्यु
चुपचाप
मायने बदल लेते हैं,
हथेलियों की
उलझी- सुलझी रेखाएं
किसी निश्चित भवितव्य की
सूचना नहीं देतीं |
अब न यह तुम्हे पता है
न मुझे
कि समय की इस साज़िश के बाद
अस्तित्व के लिए बैसाखियाँ
और बैसाखियों के लिए अस्तित्व
कौन सी दिशा बांटेगी |
मेरे और उस नगर के संबंधों की
जिसकी दीवारें
आँखों में घुले सपनों से
आ- आकर टकराती हैं,
अपने आप को पहचानने से
इनकार कर देता हूँ मैं.
शहर से बेतरह
नफरत हो जाती है |
इस सब से अलग
मेरा परिवेश
हाथों में सूखे कनेर का गुच्छा लिए
ढहते दुर्ग की प्राचीर पर
धुंए के छल्ले बनाता रहता है |
अन्दर कहीं गहरे दबा
विद्रोही चेतना का कोई अंश
और गहरे पैठ कर
सिर्फ चर्चाएँ करता है,
किसी अग्निपक्षी के पंख
अपनी ही आग से
झुलसते रहते हैं |
रक्त भीगे हाथों से
घोंघे और सीपियाँ बटोरता
एक व्यक्ति,
मन भर कर
अपने आचरण का रस पी लेने के बाद,
रंग-बिरंगे गुब्बारे फोड़ता हुआ
किसी गहरे गर्त में
कूद पड़ता है |
घिर आता है चारों ओर
बारूद के महीन कणों सा
गहरा कुहासा
और मैं
शब्दों को अर्थ
और अर्थों को शब्द देने की प्रक्रिया में
भूल जाता हूँ
अपना व्याकरण |
सारे वर्तमान को
कल्पित यज्ञ में होम कर
रक्तबीज आशा की राख में
नेवलों की तरह
लोटने लगते हैं लोग
" किसी का भी बदन
सुनहरा नहीं होता | "
क्रमशः
थरथराता है आकाश
बढ़ता है अन्धकार,
रौशनी...... रौशनी
चीखता है
हताश चेहरों का हुजूम,
हज़ार टुकड़ों में बंट गया सूर्य
सिर्फ पश्चिमी देशों पर उगता है |
व्याप गए अन्धकार का
लाभ उठाता है
मेरा व्यभिचारी आदिमानव
फिर
पाप न करने की
कसम खाता हुआ
भीड़ में खो जाता है |
मजबूर पिताओं का दल
टोकरियाँ भर-भर कर
ढोता रहता है
अपने बेटों की अस्थियाँ,
जीवन और मृत्यु
चुपचाप
मायने बदल लेते हैं,
हथेलियों की
उलझी- सुलझी रेखाएं
किसी निश्चित भवितव्य की
सूचना नहीं देतीं |
अब न यह तुम्हे पता है
न मुझे
कि समय की इस साज़िश के बाद
अस्तित्व के लिए बैसाखियाँ
और बैसाखियों के लिए अस्तित्व
कौन सी दिशा बांटेगी |
शनिवार, 9 जुलाई 2011
समापन
हमारे स्पर्श से परे हटने को
ऊंचा हो जाता है आकाश,
तट पर बिखरी
सीपियाँ उठाने बढे हाथों में
रेत भी नहीं छोड़ता समुद्र ,
लेकिन हर क्षण
ज़िंदगी के बेतरतीब क्षणों का जुलूस
एक चौराहा पार कर लेता है.
पीछे सड़ते रहते हैं
अनगिनत शव ,
सब कुछ को नकार
सिगरेट के साथ कॉफ़ी पीते
जोर से बहसते हैं बुद्धिजीवी,
कोई अरस्तु पैदा नहीं होता.
झपझपाने लगती हैं
बूढ़े दुर्ग की आँखें,
गूंजने के बाद
थरथरा कर थम जाता है
अजाना अट्टहास ........ खामोशी
जिसका अर्थ समझने में असफल
बहुतेरी आकृतियाँ
कर लेती हैं आत्महत्या.
झरते हैं उड़ते कबूतरों के पंख
इतनी तीव्रता से
कि घबराकर
आसमान पर
काले कपडे तान देते हैं लोग ..... अन्धकार,
किसी ईसा के जन्मने की संभावना में
सम्भोग करते हैं कुंवारे जिस्म,
बहुत दिनों बाद भी
कोई मरियम गर्भवती नहीं होती,
उभरता है खिजलाया प्रतिबन्ध
' अब सलीब का ज़िक्र नहीं होगा.'
परिवर्तन के नाम पर
दौड़ते हैं
कामनाओं के जंगली अश्व,
मुक्ति के लोभ में
गले में भारी पत्थर बांधे
चिपचिपाती सड़क पर
घिसटती हैं टूटी संज्ञाएँ,
अपना दाय सौंपने को.
तभी कहीं कौंधती है रौशनी,
खाली हाथों का अहसास कर
हांफने लगते हैं
पराजित युग के बुत....... प्यास
दूर चमकती है
नीली धार पानी की.
अचानक पत्थरों को फेंक
चीखने लगते हैं
दूरी से अनजान बुत,
इसी समय
इसे महसूस कर
नकारता है पानी की आवश्यकता एक व्यक्ति
और फिर
धर्म-राजनीति-साहित्य-सैक्स पर
एक साथ बोलता हुआ
नंगा हो जाता है,
अपनी बातों को नए लेबिल से सजा
बांटता है लोगों के बीच.
एक अदना सा व्यक्ति
रोकता है सबको
" ठहरो , पानी की ओर चलो ",
नई उपलब्धि की खुशी में
बहुत से हाथ उसकी ह्त्या कर देते हैं,
मर जाता है मुक्तिबोध.
हवाओं में
बिखरता है शीशा,
भरभरा कर
ढह जाते हैं अनगिन मकान,
खंडहरों में
गूंजती है अचीन्ही ध्वनियाँ,
चक्कर काटते हैं
चीत्कारते गिद्ध,
कांपने लगते हैं
बहुत से भयभीत धड,
अभिशप्त हो जाती है
पूरी शताब्दी,
किसी दूसरे लोक की खोज में
निकल पड़ती है अग्नि
और कोई मातरिश्वा
उसे वापस नहीं लाता.
ऊंचा हो जाता है आकाश,
तट पर बिखरी
सीपियाँ उठाने बढे हाथों में
रेत भी नहीं छोड़ता समुद्र ,
लेकिन हर क्षण
ज़िंदगी के बेतरतीब क्षणों का जुलूस
एक चौराहा पार कर लेता है.
पीछे सड़ते रहते हैं
अनगिनत शव ,
सब कुछ को नकार
सिगरेट के साथ कॉफ़ी पीते
जोर से बहसते हैं बुद्धिजीवी,
कोई अरस्तु पैदा नहीं होता.
झपझपाने लगती हैं
बूढ़े दुर्ग की आँखें,
गूंजने के बाद
थरथरा कर थम जाता है
अजाना अट्टहास ........ खामोशी
जिसका अर्थ समझने में असफल
बहुतेरी आकृतियाँ
कर लेती हैं आत्महत्या.
झरते हैं उड़ते कबूतरों के पंख
इतनी तीव्रता से
कि घबराकर
आसमान पर
काले कपडे तान देते हैं लोग ..... अन्धकार,
किसी ईसा के जन्मने की संभावना में
सम्भोग करते हैं कुंवारे जिस्म,
बहुत दिनों बाद भी
कोई मरियम गर्भवती नहीं होती,
उभरता है खिजलाया प्रतिबन्ध
' अब सलीब का ज़िक्र नहीं होगा.'
परिवर्तन के नाम पर
दौड़ते हैं
कामनाओं के जंगली अश्व,
मुक्ति के लोभ में
गले में भारी पत्थर बांधे
चिपचिपाती सड़क पर
घिसटती हैं टूटी संज्ञाएँ,
अपना दाय सौंपने को.
तभी कहीं कौंधती है रौशनी,
खाली हाथों का अहसास कर
हांफने लगते हैं
पराजित युग के बुत....... प्यास
दूर चमकती है
नीली धार पानी की.
अचानक पत्थरों को फेंक
चीखने लगते हैं
दूरी से अनजान बुत,
इसी समय
इसे महसूस कर
नकारता है पानी की आवश्यकता एक व्यक्ति
और फिर
धर्म-राजनीति-साहित्य-सैक्स पर
एक साथ बोलता हुआ
नंगा हो जाता है,
अपनी बातों को नए लेबिल से सजा
बांटता है लोगों के बीच.
एक अदना सा व्यक्ति
रोकता है सबको
" ठहरो , पानी की ओर चलो ",
नई उपलब्धि की खुशी में
बहुत से हाथ उसकी ह्त्या कर देते हैं,
मर जाता है मुक्तिबोध.
हवाओं में
बिखरता है शीशा,
भरभरा कर
ढह जाते हैं अनगिन मकान,
खंडहरों में
गूंजती है अचीन्ही ध्वनियाँ,
चक्कर काटते हैं
चीत्कारते गिद्ध,
कांपने लगते हैं
बहुत से भयभीत धड,
अभिशप्त हो जाती है
पूरी शताब्दी,
किसी दूसरे लोक की खोज में
निकल पड़ती है अग्नि
और कोई मातरिश्वा
उसे वापस नहीं लाता.
शुक्रवार, 6 मई 2011
एक शीर्षकहीन कविता
आखिर क्या करें
कि अँधेरे -उजाले में होती हत्याएं
और न हों ,
कुंठाओं और आत्मवर्जनाओं
से बना आकाश
किसी बोझ की तरह
हमारे कन्धों पर झूले नहीं ।
पानी से निकाल
सूखे में फ़ेंक दें
सारी मछलियाँ
और समुद्र के वक्ष पर बांधें
रेत का एक बाँध !
या शीशे की तरह तोड़ दें
सूर्यमुखी आस्था
और उसके टुकड़ों से
लहूलुहान कर लें
अपनी अंगुलियाँ !
बादलों के बीच भटका दें
अस्तित्व का दावेदार
कोई वायुयान
और फिर हँसे
हँसे इतना कि थर्रा उठें
अहम् के प्रतीक
दुर्ग की दीवारें !
या फिर अन्दर
कहीं गहरे धधकते
लावे से घबराकर
द्वार पर टांग दें मुर्दा छिपकिली
और फिर करें घोषणाएं
कि हमने क्या नहीं किया ?
कि हममे और हिटलर में
क्या फर्क है ?
कि हमने पटक दिए हैं
तुम्हारी हथेली पर
नन्हे और मुर्दा
इराक - अफगानिस्तान
और तुम
बदले में दो हमें ज्वालायें
जिनमे झोंक दें
सारे श्वेत कबूतर।
लेकिन
ये दिन ,रात ,
नक़्शे ,सड़के और गलियाँ
जिन पर फैल गयी है
गंधाती बारूद,
जहां हर दिन
रक्तस्नात ही आता है
और रात फैलाती है
हत्याओं की खबर,
वहां भी जन्मेगा कोई ईसा।
तब तुम वहां नहीं होगे ,
फिर भी वो माँगेगा
तुम्हारे गुनाहों का हिसाब
भले ही वह कहे
कहता रहे
" कि घृणा पापी से नहीं
पाप से करो ।"
कि अँधेरे -उजाले में होती हत्याएं
और न हों ,
कुंठाओं और आत्मवर्जनाओं
से बना आकाश
किसी बोझ की तरह
हमारे कन्धों पर झूले नहीं ।
पानी से निकाल
सूखे में फ़ेंक दें
सारी मछलियाँ
और समुद्र के वक्ष पर बांधें
रेत का एक बाँध !
या शीशे की तरह तोड़ दें
सूर्यमुखी आस्था
और उसके टुकड़ों से
लहूलुहान कर लें
अपनी अंगुलियाँ !
बादलों के बीच भटका दें
अस्तित्व का दावेदार
कोई वायुयान
और फिर हँसे
हँसे इतना कि थर्रा उठें
अहम् के प्रतीक
दुर्ग की दीवारें !
या फिर अन्दर
कहीं गहरे धधकते
लावे से घबराकर
द्वार पर टांग दें मुर्दा छिपकिली
और फिर करें घोषणाएं
कि हमने क्या नहीं किया ?
कि हममे और हिटलर में
क्या फर्क है ?
कि हमने पटक दिए हैं
तुम्हारी हथेली पर
नन्हे और मुर्दा
इराक - अफगानिस्तान
और तुम
बदले में दो हमें ज्वालायें
जिनमे झोंक दें
सारे श्वेत कबूतर।
लेकिन
ये दिन ,रात ,
नक़्शे ,सड़के और गलियाँ
जिन पर फैल गयी है
गंधाती बारूद,
जहां हर दिन
रक्तस्नात ही आता है
और रात फैलाती है
हत्याओं की खबर,
वहां भी जन्मेगा कोई ईसा।
तब तुम वहां नहीं होगे ,
फिर भी वो माँगेगा
तुम्हारे गुनाहों का हिसाब
भले ही वह कहे
कहता रहे
" कि घृणा पापी से नहीं
पाप से करो ।"
मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011
एक और दुर्घटना
कभी-कभी ऐसा भी होता है
कि आँखों में
उग आता है एक शहर...
नहीं, जंगल ।
जंगल में होता है
सूखा तालाब ,
बड़े-बड़े पेड़
छोटे भी,
जिनका होना
मायने नहीं रखता ।
आँधियाँ नहीं आतीं यहाँ
और नहीं रहते आदमी
सिर्फ बातें होती हैं हर रोज़
आँधी और रेत की,
और रहती हैं कुछ आकृतियाँ
आदमीयत के हिज्जे करने में मशगूल ।
ऐसे ही शहर
नहीं जंगल में
वह आया लडखडाता हुआ,
छिले थे उसके घुटने ,
सूजे थे आँखों के पपोटे
और होठों से रिस रहा था खून ।
" तुम हार गए "
मैंने कहा ,
वह हँसा,
अपनी आँखें मिचमिचाते हुए
होठों से रिस रहे खून को
पीक की तरह थूकते हुए बोला --
क्या दिया है लड़ाई ने मुझे
ज़ख्मों के सिवाय ,
अच्छा है चुप रहना
और यों ही हार जाना
लेकिन नहीं समझोगे तुम
कितना सुख है
हार जाने में
याने ढीली कर देने में
बंधी हुई मुट्ठियाँ ।
लड़ाई ?
क्या होगा उससे
और किससे लड़ोगे तुम ?
उनके किले की दीवारें
बेहद चिकनी और मज़बूत हैं,
तुम चोट करते रहो उन पर
और फोड़ लो अपना सिर
वे द्वार नहीं खोलेंगे
नहीं समझेंगे तुम्हारी भाषा
और तुम्हारी युयुत्सा
टूटती रहेगी हर क्षण ।
वह देखो
दौड़ता आ रहा है
सूर्य का दैदीप्यमान रथ ,
तुम नहीं रोक सकोगे उसे ,
तुम्हे रौंदकर गुज़र जाएगा वह
और तुम चुप रहोगे
क्योंकि रोने या चीखने पर
तुम्हे अपनी आँख या जीभ
या ज़मीन खोने का डर रहेगा ,
लड़ाई .... आखिर क्या होगा उससे
और किससे लड़ोगे तुम
वे तुम्हारी बात नहीं सुनेंगे ।
समझने के लिए
एक ही भाषा समझते हैं वे
गुलामी की ,
आग से चिढ़ते हैं वे
और एक ही तरीका पसंद है उन्हें
जानते -बूझते ज़हर पीने का,
चुपचाप जीने का
या अपने ज़ख्म
अपने ही हाथों से सीने का।
अंततः टूटना ही है तुम्हे
फिर क्या बुरा है
यों ही हार जाना ?
वे तुम्हे
कोई भी उपाधि दे सकते हैं और
कोई भी सामान ,
सूखे तालाब में
भर सकते हो तुम मनमाना पानी,
मतलब - बेमतलब
हँस सकते हो ,
बजा सकते हो ताली ,
किसी रस्ते चलते को
दे सकते हो गाली ,
दिन को रात कहो और
रात को दिन
कोई फर्क नहीं पडेगा ।
अंततः टूटना ही है तुम्हे
फिर क्या बुरा है
यों ही हर जाना ?
वह फिर हँसा
और मेरी गर्दन
शिकंजे में कस दबाने लगा ,
चीखने लगीं आकृतियाँ
क्या होगा लड़ाई से ,
क्या होगा
आखिर होगा क्या ?
सुख ... सुख ... सुख
कितना बड़ा सुख !
और एक पेड़ के नीचे
अचानक खडा हो गया मैं ,
चुपचाप
बेझिझक बेच दिया अपने आप को ,
होम दिया अपना हर अंग
ग़ुम हो गए
हर रंग की तलाश में ।
कि आँखों में
उग आता है एक शहर...
नहीं, जंगल ।
जंगल में होता है
सूखा तालाब ,
बड़े-बड़े पेड़
छोटे भी,
जिनका होना
मायने नहीं रखता ।
आँधियाँ नहीं आतीं यहाँ
और नहीं रहते आदमी
सिर्फ बातें होती हैं हर रोज़
आँधी और रेत की,
और रहती हैं कुछ आकृतियाँ
आदमीयत के हिज्जे करने में मशगूल ।
ऐसे ही शहर
नहीं जंगल में
वह आया लडखडाता हुआ,
छिले थे उसके घुटने ,
सूजे थे आँखों के पपोटे
और होठों से रिस रहा था खून ।
" तुम हार गए "
मैंने कहा ,
वह हँसा,
अपनी आँखें मिचमिचाते हुए
होठों से रिस रहे खून को
पीक की तरह थूकते हुए बोला --
क्या दिया है लड़ाई ने मुझे
ज़ख्मों के सिवाय ,
अच्छा है चुप रहना
और यों ही हार जाना
लेकिन नहीं समझोगे तुम
कितना सुख है
हार जाने में
याने ढीली कर देने में
बंधी हुई मुट्ठियाँ ।
लड़ाई ?
क्या होगा उससे
और किससे लड़ोगे तुम ?
उनके किले की दीवारें
बेहद चिकनी और मज़बूत हैं,
तुम चोट करते रहो उन पर
और फोड़ लो अपना सिर
वे द्वार नहीं खोलेंगे
नहीं समझेंगे तुम्हारी भाषा
और तुम्हारी युयुत्सा
टूटती रहेगी हर क्षण ।
वह देखो
दौड़ता आ रहा है
सूर्य का दैदीप्यमान रथ ,
तुम नहीं रोक सकोगे उसे ,
तुम्हे रौंदकर गुज़र जाएगा वह
और तुम चुप रहोगे
क्योंकि रोने या चीखने पर
तुम्हे अपनी आँख या जीभ
या ज़मीन खोने का डर रहेगा ,
लड़ाई .... आखिर क्या होगा उससे
और किससे लड़ोगे तुम
वे तुम्हारी बात नहीं सुनेंगे ।
समझने के लिए
एक ही भाषा समझते हैं वे
गुलामी की ,
आग से चिढ़ते हैं वे
और एक ही तरीका पसंद है उन्हें
जानते -बूझते ज़हर पीने का,
चुपचाप जीने का
या अपने ज़ख्म
अपने ही हाथों से सीने का।
अंततः टूटना ही है तुम्हे
फिर क्या बुरा है
यों ही हार जाना ?
वे तुम्हे
कोई भी उपाधि दे सकते हैं और
कोई भी सामान ,
सूखे तालाब में
भर सकते हो तुम मनमाना पानी,
मतलब - बेमतलब
हँस सकते हो ,
बजा सकते हो ताली ,
किसी रस्ते चलते को
दे सकते हो गाली ,
दिन को रात कहो और
रात को दिन
कोई फर्क नहीं पडेगा ।
अंततः टूटना ही है तुम्हे
फिर क्या बुरा है
यों ही हर जाना ?
वह फिर हँसा
और मेरी गर्दन
शिकंजे में कस दबाने लगा ,
चीखने लगीं आकृतियाँ
क्या होगा लड़ाई से ,
क्या होगा
आखिर होगा क्या ?
सुख ... सुख ... सुख
कितना बड़ा सुख !
और एक पेड़ के नीचे
अचानक खडा हो गया मैं ,
चुपचाप
बेझिझक बेच दिया अपने आप को ,
होम दिया अपना हर अंग
ग़ुम हो गए
हर रंग की तलाश में ।
मंगलवार, 11 जनवरी 2011
व्यस्तता के बाद
जंगल- रेगिस्तान- शहर- आदमी
और जीवन के अनगिन
अजनबी विचारों से भेंट कर
वापस जब लौटा मैं,
चाँदनी
कमरे में सो रही थी।
किसी मंदिर की घंटियों,
बर्फ के नीचे बहते जल
या बारिश की रिमझिम सी
शुद्ध ध्वनि की तरह
वह
बाहर दरख्तों पर छाई थी।
मुझे पता है
जैसे रौशनी
हर चीज़ से उठा देती है पर्दा,
आगे बढ़ जाती है सड़क ,
ठीक वैसे ही
सब कुछ
साफ़ होने लगा है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)