सोमवार, 12 सितंबर 2011

एक और अग्नि सूक्त

हे अग्नि
तुम आरम्भ हो,
तुम्हारे ही ताप से
सिरजा यह विश्व,
तुमने की श्रृष्टि रचना
बन कर कामाग्नि।

भूख बन आंत में
कुलबुलाते हो तुम ,
प्यास बन कंठ को
चिटकाते हो तुम ,
रक्त की ऊष्मा में
बहते हो तुम ,
तेज बन ज्ञान में
चमकते हो तुम।

तुम ही हो कारण
ईर्ष्या और द्वेष का,
तुम ही हो क्रोध
तुम ही हो रूद्र
तुम ही उत्साह हो
तुम ही हो वृष्टि
तुम से ही होती है
शस्य-धान्य सृष्टि,
ओषधि में निहित
तुम्हारा सामर्थ्य
दग्ध कर देता है
व्याधि के विषाणु ।

हे अग्नि
तुम अंत हो,
तुम समेटने लगते हो
जब अपनी शक्ति ,
सन्नद्ध हो जाती है मृत्यु ,
तुम ही भस्म करते हो
स्वयं रचा शरीर ,
तुम से मिल जाती है
तुम्हारी ही
अग्नि-पूत आत्मा .

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