टिप्पणी--- यह कविता भी पिछली कविता " हादसे " की भावभूमि पर ही है। जयपुर से आदरणीय श्री हेतु भारद्वाज तथा प्रिय बन्धु और मेरे मित्र कवि गोविन्द माथुर द्वारा संपादित "अक्सर" पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है ।
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ठीक कहा था उसने
" मुझे क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता ",
रोज़-रोज़ मरने की तकलीफ से
आज़ाद तो होता ।
तीरे नीमकश की
बात है पुरानी
अब वो
सीने पर अडाते हैं त्रिशूल ,
पूछते हैं
जाति-नाम-धर्म,
यही रह गया है
प्यार का मर्म ।
वह भी हतप्रभ है
कहा था जिसने
"उनके हर शूल के बदले
तुम बोते रहो फूल , "
नहीं पता था उसे
कितने फूल
एक त्रिशूल की लिए
होंगे कामयाब ,
इसलिए फिर मर गया
बेचारा कबीर ।
उसकी भी त्रासदी थी
ढूढता था आदमी
कहता था
" आदमी हैं यहाँ भी
आदमी हैं वहां भी , "
आदमी थे ही नहीं ,
तब भी वही थे
अब भी वही हैं
धर्मांध-कट्टर- स्वयंभू
संस्कृति -रक्षक
राम-राम
" ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम । "
क्या हो गया है ,
रोज़-रोज़ मरते जाओ
पर राम-नाम
मरने में भी सत्य नहीं होता,
मैं ही मरता हूँ हर रोज़
पर कोई जनाज़ा नहीं उठता,
कोई मज़ार नहीं होती ,
मेरी यह मौत
कहीं कोई खबर नहीं होती,
मेरी गिनती तक
मृत लोगों में शुमार नहीं होती ।
अब क्या करूँ
किसको पुकारूं ,
गणेश का अनियंत्रित चूहा
अपनी ही जड़ों को कटता है ,
बजरंग का बन गया है दल ,
शिव की है सेना ,
दुर्गा की वाहिनी ,
अब कहाँ रहे देवता
कहाँ हैं आदमी !
मैं पूछता हूँ उस शायर से
वे लोग कहाँ हैं
जो घर बसाते हैं ,
घर बसाते टूट जाते हैं,
ज़ख्म पर मरहम लगाते हैं ?
आदमी सी शक्ल वाले
शास्त्र से माथे पर मेरे
शस्त्र सा आघात करते
कौन हैं ये लोग ?
मेरे खून से क्या गढ़ रहे हैं ?
कौन सा मंदिर या मस्जिद ?
कौन आयेगा वहां ,
कौन जाएगा वहां ,
जिसको मेरा लहू
निर्वात कर देगा ।
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
सोमवार, 8 नवंबर 2010
हादसे
रोज़ सुबह
अखबार खोलते डरता हूँ,
हादसों की खबर से
टीवी, रेडियो से भी
रहता हूँ दूर।
पहले जो होते थे
अनायास
अब सायास लगते हैं,
पहले लगते थे दूर
अब पास लगते हैं,
घर का दरवाज़ा खटखटाते
ये हादसे।
एक समय था
जब खुलकर हंसता था,
इंसानों के बीच
रहा करता था,
अब मज़हब है पहले
इंसान कहीं नहीं
मंदिर-मस्जिद -गुरूद्वारे सब हैं
इंसान कहीं नहीं,
दीन-दीन का दुश्मन
इंसान कहीं नहीं,
धर्म - धर्म का दुश्मन
इंसान कहीं नहीं।
कहाँ गया इंसान
सवाल बेमानी है,
हर दंगे
घटना -दुर्घटना में
जो मरता है
या मारा जाता है
उसके बारे में फिक्र
बड़ी नादानी है।
यही वज़ह है
अखबारों में खबरें नहीं है
हादसे हैं।
बंद दरवाजों -खिडकियों में
बार-बार
मैं खुद को महफूज़ करता हूँ,
हादसों से
कतराता हूँ , डरता हूँ।
कभी कहीं एक लड़की थी
प्यार से लिपट जाती थी,
भाईजान कहते
जिसकी थकती नहीं थी जुबान,
एक अम्मी थी
जो प्यार से
माँ की तरह आसीसती थी,
एक दोस्त भी था।
कहने को
अब भी वही हैं
पर बीच में
कुछ हादसे आ गए हैं
जिनके लिए
न ज़िम्मेदार वो हैं, न मैं।
हादसों ने
बीच में खींच दी है
शक की जो लकीर
मैं उस शक से घबराता हूँ,
न वह लोग पास आते हैं
न मैं पास जाता हूँ।
अखबार खोलते डरता हूँ,
हादसों की खबर से
टीवी, रेडियो से भी
रहता हूँ दूर।
पहले जो होते थे
अनायास
अब सायास लगते हैं,
पहले लगते थे दूर
अब पास लगते हैं,
घर का दरवाज़ा खटखटाते
ये हादसे।
एक समय था
जब खुलकर हंसता था,
इंसानों के बीच
रहा करता था,
अब मज़हब है पहले
इंसान कहीं नहीं
मंदिर-मस्जिद -गुरूद्वारे सब हैं
इंसान कहीं नहीं,
दीन-दीन का दुश्मन
इंसान कहीं नहीं,
धर्म - धर्म का दुश्मन
इंसान कहीं नहीं।
कहाँ गया इंसान
सवाल बेमानी है,
हर दंगे
घटना -दुर्घटना में
जो मरता है
या मारा जाता है
उसके बारे में फिक्र
बड़ी नादानी है।
यही वज़ह है
अखबारों में खबरें नहीं है
हादसे हैं।
बंद दरवाजों -खिडकियों में
बार-बार
मैं खुद को महफूज़ करता हूँ,
हादसों से
कतराता हूँ , डरता हूँ।
कभी कहीं एक लड़की थी
प्यार से लिपट जाती थी,
भाईजान कहते
जिसकी थकती नहीं थी जुबान,
एक अम्मी थी
जो प्यार से
माँ की तरह आसीसती थी,
एक दोस्त भी था।
कहने को
अब भी वही हैं
पर बीच में
कुछ हादसे आ गए हैं
जिनके लिए
न ज़िम्मेदार वो हैं, न मैं।
हादसों ने
बीच में खींच दी है
शक की जो लकीर
मैं उस शक से घबराता हूँ,
न वह लोग पास आते हैं
न मैं पास जाता हूँ।
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