सोमवार, 8 नवंबर 2010

हादसे

रोज़ सुबह
अखबार खोलते डरता हूँ,
हादसों की खबर से
टीवी, रेडियो से भी
रहता हूँ दूर।

पहले जो होते थे
अनायास
अब सायास लगते हैं,
पहले लगते थे दूर
अब पास लगते हैं,
घर का दरवाज़ा खटखटाते
ये हादसे।

एक समय था
जब खुलकर हंसता था,
इंसानों के बीच
रहा करता था,
अब मज़हब है पहले
इंसान कहीं नहीं
मंदिर-मस्जिद -गुरूद्वारे सब हैं
इंसान कहीं नहीं,
दीन-दीन का दुश्मन
इंसान कहीं नहीं,
धर्म - धर्म का दुश्मन
इंसान कहीं नहीं।

कहाँ गया इंसान
सवाल बेमानी है,
हर दंगे
घटना -दुर्घटना में
जो मरता है
या मारा जाता है
उसके बारे में फिक्र
बड़ी नादानी है।

यही वज़ह है
अखबारों में खबरें नहीं है
हादसे हैं।

बंद दरवाजों -खिडकियों में
बार-बार
मैं खुद को महफूज़ करता हूँ,
हादसों से
कतराता हूँ , डरता हूँ।

कभी कहीं एक लड़की थी
प्यार से लिपट जाती थी,
भाईजान कहते
जिसकी थकती नहीं थी जुबान,
एक अम्मी थी
जो प्यार से
माँ की तरह आसीसती थी,
एक दोस्त भी था।

कहने को
अब भी वही हैं
पर बीच में
कुछ हादसे आ गए हैं
जिनके लिए
न ज़िम्मेदार वो हैं, मैं

हादसों ने
बीच में खींच दी है
शक की जो लकीर
मैं उस शक से घबराता हूँ,
न वह लोग पास आते हैं
न मैं पास जाता हूँ।

14 टिप्‍पणियां:

  1. @priy shree Basant ji
    रोज़ सुबह
    अखबार खोलते डरता हूँ,
    हादसों की खबर से
    टीवी, रेडियो से भी
    रहता हूँ दूर।
    पहले जो होते थे
    अनायास
    अब सायास लगते हैं,
    पहले लगते थे दूर
    अब पास लगते हैं,
    घर का दरवाज़ा खटखटाते
    ये हादसे।
    एक समय था
    जब खुलकर हंसता था,
    इंसानों के बीच
    रहा करता था,
    yhan tk to rchna ne ek achhi aur sahi udaan lee lekin iske baad ?

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  2. इसके बाद आपको क्या चाहिए या आपकी आपत्ति क्या है यह मैं समझ नहीं पाया। इसके बाद वही है जो मैंने महसूस किया है। अगर आपकी आपत्ति उन लोगों को लेकर है जिनका मैंने ज़िक्र किया है तो यह मेरी समस्या नहीं है। मैंने इसे जिस स्तर पर भोगा है वही लिखा है और मेरी नज़र में वह पूर्णतः सत्य है। आपका गणित अलग हो सकता है। वैसे भी हर कविता हर किसी को पसंद आये यह ज़रूरी नहीं है। मेरे अनेक मित्रों को यह इसी रूप में पसंद आई है। सवाल अपनी - अपनी भाव भूमि का है। मेरे लिए इस देश की समन्वय वादी संस्कृति का टूटना ही सबसे बड़ा हादसा है और यह मेरी कई कविताओं में व्यक्त हुआ है। इसी विषय पर मेरी " चिंदी-चिंदी कविता " शीर्षक से एक कविता "अक्सर' में प्रकाशित हुई है। यदि आप अपनी आपत्ति का खुलासा करें तो शायद मैं कुछ और उत्तर दे सकूं हालाकि मुझे लग रहा है की आपकी आपत्ति यही है। प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। आशा है आगे भी ऐसे ही उपकृत करते रहेंगे।

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  3. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ....
    मुझे भी कविताये लिखने का शोंक है, मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
    sparkindians.blogspot.com

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  4. विचार अभिव्यक्ति के जरिये समाजोत्थान के कार्य में योगदान के लिये बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    एक विचार :
    "हम सकारात्मक रूप से जहाँ तक सोच सकते हैं, वहाँ तक पहुँच सकते हैं।"

    इस बात को मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है।

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

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  5. एक बहुत ही सुन्दर सोच के लिए असंख्य धन्यवाद! आपके ब्लॉग पर आकर वाकई अच्छा लगा. हर रोज़ नई सोच देने का वादा करो...!

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  6. laajawaab

    bas ant nahin honaa chaahiye is tarah kii kavitaaii kaa.

    shubhkaamnaayen.

    जवाब देंहटाएं
  7. यत्न करूंगा कि आप लोगों को निराशा न होना पड़े। मेरी सोच एक समन्वयवादी समाज की है और वही हमारी संस्कृति सिखाती है।
    आपका ब्लॉग ज़रूर देखूंगा डिम्पिल जी।
    रोज़ एक नई सोच का वादा करना बहुत मुश्किल है अन्ताक्षरी जी । हाँ जितना कुछ सोच सकूंगा वह ज़रूर मिलेगा।
    प्रतुल जी , अंत तो हर वस्तु का हो जाता है तो फिर कविता कैसे बचेगी। वैसे आपका प्रशंसा करने का तरीका अच्छा लगा ।
    निरंकुश जी , आपसे मैं पूरी तरह सहमत हूँ । मैंने रेकी भी सीखी है और मैं सही या शुभ विचारों का महत्व समझता हूँ।
    सभी को कोटिशः धन्यवाद , इससे मनोबल बढ़ता है।

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  8. Kuch galat likha gayaa.Kavita ka anta ho saktaa hai par kavitaaii to bani hi rahegi --- Ek arsaa ho gayaa likhate hue aba to yah aadat chootane se rahi. Jab tak main hoon tab tak to kam se kam yaha hai hi aur baad ki chintaa karanaa vyartha hai.

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  9. "एक समय था
    जब खुलकर हंसता था
    इंसानों के बीच
    रहा करता था"
    आत्ममंथन को विवश करती प्रशंसनीय प्रस्तुति - शानदार रचना के लिए बधाई

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  10. hame bhi prena mili kawita likhne ki robotics ke baad kawita likhenge ham

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  11. Zaroor likhen.Bahut acchaa shagal hai.jab likhen tab mujhe yaad karnaa na bhoolen.

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  12. रोज़ सुबह
    अखबार खोलते डरता हूँ,
    हादसों की खबर से
    टीवी, रेडियो से भी
    रहता हूँ दूर।
    पहले जो होते थे
    अनायास
    अब सायास लगते हैं,
    पहले लगते थे दूर
    अब पास लगते हैं. अच्छी अभिव्यक्ति ।शुभ कामनाएं ।

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