शुक्रवार, 8 जून 2012

सिकुडते हुए

सिकुडते जा रहे हैं दायरे,
कभी वो दिन भी थे
जब सिनेमाघर में
एक बड़े से परदे पर
हम देखते थे कोई फिल्म |

अनंत पिटारे थे हमारे पास
किस्से - कहानियों के
गप्पों और बातों के,
न जाने कब सिकुड गया वह पर्दा
और हम
सिनेमाघर की जगह
सिमट गए महज़ एक कमरे में |

लेकिन तब भी पता नहीं था
कि और सिकुड जायेंगे हम |

अब ये आलम है
कि टी. वी. से भी छोटे
किसे परदे पर
मैं देखता हूँ कोई फिल्म
और तुम उसी कमरे में
कुछ और करते हुए
मेरी तरफ किये हुए पीठ
सुनती रहती हो
उसी फिल्म के संवाद |

शायद यही नियामत है
कि आज भी
एक ही छत के नीचे
बसे है मैं और तुम |