कुछ भी संज्ञा हो सकती है
मेरे और उस नगर के संबंधों की
जिसकी दीवारें
आँखों में घुले सपनों से
आ- आकर टकराती हैं,
अपने आप को पहचानने से
इनकार कर देता हूँ मैं.
शहर से बेतरह
नफरत हो जाती है |
इस सब से अलग
मेरा परिवेश
हाथों में सूखे कनेर का गुच्छा लिए
ढहते दुर्ग की प्राचीर पर
धुंए के छल्ले बनाता रहता है |
अन्दर कहीं गहरे दबा
विद्रोही चेतना का कोई अंश
और गहरे पैठ कर
सिर्फ चर्चाएँ करता है,
किसी अग्निपक्षी के पंख
अपनी ही आग से
झुलसते रहते हैं |
रक्त भीगे हाथों से
घोंघे और सीपियाँ बटोरता
एक व्यक्ति,
मन भर कर
अपने आचरण का रस पी लेने के बाद,
रंग-बिरंगे गुब्बारे फोड़ता हुआ
किसी गहरे गर्त में
कूद पड़ता है |
घिर आता है चारों ओर
बारूद के महीन कणों सा
गहरा कुहासा
और मैं
शब्दों को अर्थ
और अर्थों को शब्द देने की प्रक्रिया में
भूल जाता हूँ
अपना व्याकरण |
सारे वर्तमान को
कल्पित यज्ञ में होम कर
रक्तबीज आशा की राख में
नेवलों की तरह
लोटने लगते हैं लोग
" किसी का भी बदन
सुनहरा नहीं होता | "
क्रमशः
थरथराता है आकाश
बढ़ता है अन्धकार,
रौशनी...... रौशनी
चीखता है
हताश चेहरों का हुजूम,
हज़ार टुकड़ों में बंट गया सूर्य
सिर्फ पश्चिमी देशों पर उगता है |
व्याप गए अन्धकार का
लाभ उठाता है
मेरा व्यभिचारी आदिमानव
फिर
पाप न करने की
कसम खाता हुआ
भीड़ में खो जाता है |
मजबूर पिताओं का दल
टोकरियाँ भर-भर कर
ढोता रहता है
अपने बेटों की अस्थियाँ,
जीवन और मृत्यु
चुपचाप
मायने बदल लेते हैं,
हथेलियों की
उलझी- सुलझी रेखाएं
किसी निश्चित भवितव्य की
सूचना नहीं देतीं |
अब न यह तुम्हे पता है
न मुझे
कि समय की इस साज़िश के बाद
अस्तित्व के लिए बैसाखियाँ
और बैसाखियों के लिए अस्तित्व
कौन सी दिशा बांटेगी |
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
शनिवार, 9 जुलाई 2011
समापन
हमारे स्पर्श से परे हटने को
ऊंचा हो जाता है आकाश,
तट पर बिखरी
सीपियाँ उठाने बढे हाथों में
रेत भी नहीं छोड़ता समुद्र ,
लेकिन हर क्षण
ज़िंदगी के बेतरतीब क्षणों का जुलूस
एक चौराहा पार कर लेता है.
पीछे सड़ते रहते हैं
अनगिनत शव ,
सब कुछ को नकार
सिगरेट के साथ कॉफ़ी पीते
जोर से बहसते हैं बुद्धिजीवी,
कोई अरस्तु पैदा नहीं होता.
झपझपाने लगती हैं
बूढ़े दुर्ग की आँखें,
गूंजने के बाद
थरथरा कर थम जाता है
अजाना अट्टहास ........ खामोशी
जिसका अर्थ समझने में असफल
बहुतेरी आकृतियाँ
कर लेती हैं आत्महत्या.
झरते हैं उड़ते कबूतरों के पंख
इतनी तीव्रता से
कि घबराकर
आसमान पर
काले कपडे तान देते हैं लोग ..... अन्धकार,
किसी ईसा के जन्मने की संभावना में
सम्भोग करते हैं कुंवारे जिस्म,
बहुत दिनों बाद भी
कोई मरियम गर्भवती नहीं होती,
उभरता है खिजलाया प्रतिबन्ध
' अब सलीब का ज़िक्र नहीं होगा.'
परिवर्तन के नाम पर
दौड़ते हैं
कामनाओं के जंगली अश्व,
मुक्ति के लोभ में
गले में भारी पत्थर बांधे
चिपचिपाती सड़क पर
घिसटती हैं टूटी संज्ञाएँ,
अपना दाय सौंपने को.
तभी कहीं कौंधती है रौशनी,
खाली हाथों का अहसास कर
हांफने लगते हैं
पराजित युग के बुत....... प्यास
दूर चमकती है
नीली धार पानी की.
अचानक पत्थरों को फेंक
चीखने लगते हैं
दूरी से अनजान बुत,
इसी समय
इसे महसूस कर
नकारता है पानी की आवश्यकता एक व्यक्ति
और फिर
धर्म-राजनीति-साहित्य-सैक्स पर
एक साथ बोलता हुआ
नंगा हो जाता है,
अपनी बातों को नए लेबिल से सजा
बांटता है लोगों के बीच.
एक अदना सा व्यक्ति
रोकता है सबको
" ठहरो , पानी की ओर चलो ",
नई उपलब्धि की खुशी में
बहुत से हाथ उसकी ह्त्या कर देते हैं,
मर जाता है मुक्तिबोध.
हवाओं में
बिखरता है शीशा,
भरभरा कर
ढह जाते हैं अनगिन मकान,
खंडहरों में
गूंजती है अचीन्ही ध्वनियाँ,
चक्कर काटते हैं
चीत्कारते गिद्ध,
कांपने लगते हैं
बहुत से भयभीत धड,
अभिशप्त हो जाती है
पूरी शताब्दी,
किसी दूसरे लोक की खोज में
निकल पड़ती है अग्नि
और कोई मातरिश्वा
उसे वापस नहीं लाता.
ऊंचा हो जाता है आकाश,
तट पर बिखरी
सीपियाँ उठाने बढे हाथों में
रेत भी नहीं छोड़ता समुद्र ,
लेकिन हर क्षण
ज़िंदगी के बेतरतीब क्षणों का जुलूस
एक चौराहा पार कर लेता है.
पीछे सड़ते रहते हैं
अनगिनत शव ,
सब कुछ को नकार
सिगरेट के साथ कॉफ़ी पीते
जोर से बहसते हैं बुद्धिजीवी,
कोई अरस्तु पैदा नहीं होता.
झपझपाने लगती हैं
बूढ़े दुर्ग की आँखें,
गूंजने के बाद
थरथरा कर थम जाता है
अजाना अट्टहास ........ खामोशी
जिसका अर्थ समझने में असफल
बहुतेरी आकृतियाँ
कर लेती हैं आत्महत्या.
झरते हैं उड़ते कबूतरों के पंख
इतनी तीव्रता से
कि घबराकर
आसमान पर
काले कपडे तान देते हैं लोग ..... अन्धकार,
किसी ईसा के जन्मने की संभावना में
सम्भोग करते हैं कुंवारे जिस्म,
बहुत दिनों बाद भी
कोई मरियम गर्भवती नहीं होती,
उभरता है खिजलाया प्रतिबन्ध
' अब सलीब का ज़िक्र नहीं होगा.'
परिवर्तन के नाम पर
दौड़ते हैं
कामनाओं के जंगली अश्व,
मुक्ति के लोभ में
गले में भारी पत्थर बांधे
चिपचिपाती सड़क पर
घिसटती हैं टूटी संज्ञाएँ,
अपना दाय सौंपने को.
तभी कहीं कौंधती है रौशनी,
खाली हाथों का अहसास कर
हांफने लगते हैं
पराजित युग के बुत....... प्यास
दूर चमकती है
नीली धार पानी की.
अचानक पत्थरों को फेंक
चीखने लगते हैं
दूरी से अनजान बुत,
इसी समय
इसे महसूस कर
नकारता है पानी की आवश्यकता एक व्यक्ति
और फिर
धर्म-राजनीति-साहित्य-सैक्स पर
एक साथ बोलता हुआ
नंगा हो जाता है,
अपनी बातों को नए लेबिल से सजा
बांटता है लोगों के बीच.
एक अदना सा व्यक्ति
रोकता है सबको
" ठहरो , पानी की ओर चलो ",
नई उपलब्धि की खुशी में
बहुत से हाथ उसकी ह्त्या कर देते हैं,
मर जाता है मुक्तिबोध.
हवाओं में
बिखरता है शीशा,
भरभरा कर
ढह जाते हैं अनगिन मकान,
खंडहरों में
गूंजती है अचीन्ही ध्वनियाँ,
चक्कर काटते हैं
चीत्कारते गिद्ध,
कांपने लगते हैं
बहुत से भयभीत धड,
अभिशप्त हो जाती है
पूरी शताब्दी,
किसी दूसरे लोक की खोज में
निकल पड़ती है अग्नि
और कोई मातरिश्वा
उसे वापस नहीं लाता.
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