मंगलवार, 11 जनवरी 2011

व्यस्तता के बाद

दूर तक फैले समुद्र
जंगल- रेगिस्तान- शहर- आदमी
और जीवन के अनगिन
अजनबी विचारों से भेंट कर
वापस जब लौटा मैं,
चाँदनी
कमरे में सो रही थी।

किसी मंदिर की घंटियों,
बर्फ के नीचे बहते जल
या बारिश की रिमझिम सी
शुद्ध ध्वनि की तरह
वह
बाहर दरख्तों पर छाई थी।

मुझे पता है
जैसे रौशनी
हर चीज़ से उठा देती है पर्दा,
आगे बढ़ जाती है सड़क ,
ठीक वैसे ही
सब कुछ
साफ़ होने लगा है।

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