गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

पिता के नाम

लोग कहते हैं
बूढ़े हो गए हैं पिता,
चलते हैं
लडखडाते हैं
गिर भी जाते हैं कभी।

डॉक्टरों की राय हैं,
"कचरा सा भर गया है कुछ
दिमाग की नसों में,
संतुलन नहीं रख पाते वह"
लेकिन पिता तो
सदा से ऐसे थे।

मुझे नहीं पता
माँ ने कहा था,
पहली बार चलते हुए
जब गिरा था मैं
तब भी
लडखडाये थे पिता।

और यह तो याद है मुझे
जितनी देर से
घर लौटता था मैं
उतनी देर
लडखडाते ही रहते थे पिता।

इम्तेहान में
फेल हुआ मैं
तब भी लडखडाये थे पिता।

मेरी शादी, नौकरी
बच्चो के जन्म पर,
अपनी माँ
मेरी माँ की मौत पर,
हम सब की खुशियों
असफलताओं पर,
मेरी बेटी की शादी पर,
उसके माँ बनने पर,
पोते के विदेश जाने पर
पता नहीं क्यों
हर बार
जैसे हैं आज
ठीक ऐसे ही असहज
लडखडाये से दीखे थे पिता।

क्या हुआ,
नया क्या हुआ,
वह पिता हैं
हडबडाते हैं ,
लडखडाते हैं ,
लेकिन पहले की तरह
हर बार
संभलना - संभालना
उनसे हो नहीं पाता अब।

जब से पिता हो गया हूँ मैं
मेरा लडखडाना भी
पिता में ही शामिल हो गया है।



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