शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

ईप्सित

कभी ऐसा भी हो
कि उगे ही नहीं सूर्य
और देख न सकें आँखें
खिलते हुए अमलतास ।

पास ही कहीं
हवा की तेज़ लहरों में
झनझनाती रहे
कोई गुमनाम सी फली
और मैं महसूस करूँ
एक ध्वनित संस्पर्श ।

बगल में ही
फूट पड़े एक काँस
और कोई अनचीन्ही गौरैय्या
मेरे अंतस की गहराई तक
उसे झुकाती रहे बार-बार

समूचे शहर को
ढाँप ले एक कोहरा ,
दो समानान्तर रेखाओं के मध्य
उग आये पर्वत
पल भर को हो जाएँ दूर,
एक विचित्र कसमसाहट से
टूट जाये मेरा अहम्।

कुछ तो ऐसा हो
कि शिराओं पर खिले
बर्फ के फूल
झरने लगें अनायास
और लेने लगे साँस
कहीं कोने में पडा अतीत ।


2 टिप्‍पणियां:

  1. विचित्र ढंग से अपनी ओर खींचती कविता ........एक तरह से अलग थलग करती हुई और भीतर की उदासी को बताती भी और ना बताती हुई .........अद्भुत !
    Ajanta Deo

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  2. अत्यंत निर्दोष इच्छाएं , निष्कलुष .

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