सोमवार, 12 सितंबर 2011

लवण सूक्त http://www.blogger.com/

हे लवण ,
नहीं पता मुझे
मेरे किस पूर्वज को
किस जल या पत्थर में
अचानक मिले तुम ,
किस की जीभ से
देह में फैलाया तुमने
एक नया स्वाद।

हे लवण ,
सभ्यता के उस आदि दिन से
सृष्टि के हर कोष में
बस गए तुम,
हर किसी घर में
पूजे गए तुम,
खून का हर कतरा
तुम्हारी विजय-गाथा है,
गांधी का नमक यज्ञ
तुम्हारी ही पताका है।

हे लवण,
तुम्हारे बिन भाता नहीं
कोई भी रूप,
तुम बिन चमकती नहीं
यौवन की धूप ,
तुम्हारा समभाव ही
रोग का अभाव है,
तुम्हारे बढ़ने से बदलता
धरा का स्वभाव है,
तुम ने ही दिया
नीति को यह अर्थ --
" हलाल हो तो ठीक है
हराम हो तो व्यर्थ "।

हे लवण ,
श्रम की मर्यादा का
मोल हो तुम,
पसीने की बूंदों का
बोल हो तुम,
जीवन चटकीला है
जब तक तुम प्रजागर हो,
नूरे इलाही तक
लवण तुम उजागर हो ।

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