सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

याद -2

मन में
मचलती यह साध
मुखर होती याद की
गर्दन दबा दूं ।

आज मन के कैनवस पर
चित्र तेरा
बहुत गहरा हो उठा है ,
एक कूंची उठे जबरन
निठुरता से क्रॉस कर जाए
तुम्हारे रूप को ।

तुम्हारे नाम के आगे
( जो धमनियों में
एक सिहरन पूर देता )
कलम से
ऐसा विशेषण एक झर जाये
जिससे तुम्हे चिढ़ हो ।

एक ऐसा प्रबल झोंका जन्म ले
जो तुमसे जुडी
हर वस्तु को
धुंए सा तोड़ डाले
उडादे दूर ।

लेकिन न जाने क्यों
होता नहीं कुछ ,
लाचारी इतनी बढ़ी है
की सहम कर
स्वयं में ही
सिमटने लग गयी है ,
और तुम्हारी याद
गहरी ,
और गहरी ....... और गहरी ।

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